गृहस्थ आश्रम सबसे श्रेष्ठ आश्रम है, इसमें कर्मों का लेना – देना अदा हो जाता है – बाबा उमाकान्त जी महाराज* 

अगर भगवान मिलेगा तो इसी मनुष्य शरीर में मिलेगा और जहाँ गृहस्थ आश्रम में आप रहते हो वहीं मिलेगा

बाराबंकी। बाबा उमाकान्त जी महाराज ने कहा कि गृहस्थी को मत छोड़ो। इस समय जो गृहस्थी को छोड़ कर के जाएगा भगवान उसको स्वप्न में भी नहीं मिलेगा। जो मनुष्य शरीर छोड़ कर के गया उसको भगवान ना आज तक मिला और ना ही मिलेगा। अगर मिलेगा तो इसी मनुष्य शरीर में मिलेगा और जहाँ गृहस्थ आश्रम में आप रहते हो वहीं मिलेगा। गृहस्थी बहुत अच्छी है। जो लोग गृहस्थी को नहीं बसाना चाहते हो चाहे लड़के हो या लड़कियां हो, उनके लिए तो समझो खतरा है, आपका मन कभी भी धोखा दे सकता है। जैसे ही आपके पेट में कोई खराब अन्न गया वैसी ही आपकी बुद्धि वह कर देगा, उसी तरह का आपका मन हो जाएगा, लेकिन जब बंधन हो जाता है तब आदमी वहीं तक सीमित रहता है। जैसे किसी जानवर को आप रस्सी बांध दोगे पेड़ से तो वह घास को तो खूब खाएगा लेकिन जब रस्सी तनेगी तब फिर आगे नहीं बढ़ सकता है और घूम-घूम कर के उसी सीमा में खाने लग जाएगा। तो एक सीमा निर्धारित हो जाती है।

जो गृहस्थी छोड़ कर के जाते हैं उनका जीवन बड़ा मुश्किल हो जाता है

जो गृहस्थी छोड़ कर के जाते हैं उनका जीवन बड़ा मुश्किल हो जाता है। सारी त्याग, तपस्या और साधना खत्म हो जाती है, कहा गया –

श्रृंगी को भंगी कर डाला, नारद के पीछे पड़ गई पछाड़।

योग करत गोरख को लूटा, नेमी को लूटा हलवा खिलाय।।

और विश्वामित्र जैसे की साठ हजार वर्ष की तपस्या खत्म हो गई, तो देर नहीं लगती है चरित्र के गिरने में। इसीलिए सन्तों ने गृहस्थ आश्रम को सबसे बढ़िया बताया; गृहस्थ आश्रम में रहो, एक दूसरे का कर्जा भी अदा कर लो। कर्जा कैसे अदा होता है? कोई कमा कर लाता है, कोई रोटी बना देता है, कोई बर्तन धो देता है इत्यादि। तो ऐसे ही लेना-देना कर्जा सब अदा हो जाता है। कर्जा भी अदा होना जरूरी होता है, लेकिन जो अपने कर्म कर्जे को परिवार वालों के ऊपर छोड़ कर के गृहस्थ आश्रम से बाहर चला जाता है, तब वह जिस काम के लिए कि हम गृहस्थों का अन्न खाएंगे और गृहस्थों के लिए जो कर्जा है लोगों का वह हम अदा कराएंगे, अगर वह नहीं अदा करा पाता है तो कहा गया “गृहस्थों के टुकड़े नौ-नौ अंगुल के दांत, भजन करे सो उबरे नहीं तो फाड़े आंत” कहने का मतलब यह है कि उनका मन, बुद्धि, चित्त सब खराब हो जाता है, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और जो गंदा काम गृहस्थ नहीं कर सकता है वह काम गृहस्थ आश्रम जो छोड़ कर के जाते हैं, वह कर बैठते हैं। तो गृहस्थ आश्रम सबसे श्रेष्ठ आश्रम है।

शरीर और मन ये तभी सधेंगे जब आप सुरत शब्द योग की साधना करोगे*

आप अगर सक्षम हो, कमा कर खिला सकते हो (जिससे शादी करते हो उसको), उसकी इच्छा की पूर्ति कर सकते हो तब तो आप शादी करो और नहीं तो आप अपने शरीर को साध लो, आप अपने मन को साध लो। शरीर और मन ये तभी सधेंगे जब आप सुरत शब्द योग की साधना करोगे। बाकी जो तमाम योग हैं; अष्टांग योग, हठ योग, कुंडलिनियों को जगाना, प्राणायाम करना इनसे यह मन वश में होने वाला नहीं है, यह सधने वाला नहीं है।

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